नजरिया

नजरिया

देशद्रोही हैं वो
जो विकास की राह में रोड़े अटकाते हैं
देखते नहीं आप, वो विकास होने देना नहीं चाहते हैं
वो नहीं चाहते, विकास पहुंचे हर जगह
हमारी नदियां अपना पानी फेंकती रहें समुंदर में इसी तरह?
अनवरत और बेवजह
ये जंगल इसी तरह जंगल बने रहें?
घने और दुरूह
इनमें रहनेवाले बने रहें जंगली और आदिवासी
उन्हें क्यों न पता चले कि वे भी हैं भारतवासी?
विकास की राह रोकनेवाले ये महज विद्रोही नहीं
देश द्रोही हैं...
हां, और ये देशभक्त हैं
जो हमारे जंगलों तक आना चाहते हैं
नदियों पर बांध बना उन्हें रोक लेना चाहते हैं
हमारी जमीन पर कारखाने लगाना चाहते हैं
धरती के नीचे से सम्पन्नता खींच लाना चाहते हैं
पर...
बांध का पानी
जंगल का रास्ता
कारखाने की पैदावार
और खनिज की मात्रा
बढऩे या घटने से मेरी जिंदगी तो नहीं बढ़ी
वो सहमकर चली गई दो कदम और पीछे
जहां थी पहले खड़ी
क्या यह विकास मेरे लिए मायने रखता है?
आप ही बताओ
खाली पेट किसका देशप्रेम जगता है?

एक खामोश तकरार

एक खामोश तकरार
कल शाम कि बात 
वहीं ठहरी रही...
हुई सुबह 
दुपहरी गई
पर मैंने कुछ ना कहा
वो भी चुप रही... 
मेरी निगाहें उस पर थीं 
वो भी मुझे देख रही थी
बस पहल करने कि देर थी...
फिर वो भी मेरी तरह रोई
फूट फूट कर
क्योंकि वो मुझसे अब भी प्यार करती है...
मेरे दिल में भी सिर्फ उसी के लिए जगह है...
काश ये खामोश तकरार
कल शाम ही ख़त्म हो जाती... 

(एक बहुत प्यारे से जोड़े के लिए) 

एक सवाल

एक सवाल 
पैसा, जो आदमी को पारिभाषित करता है
हाँ, आज के आदमी को!
क्या आदमी को आदमी रहने देता है?
कल के आदमी की तरह... 
कल तक आदमी के जेब में रहता था पैसा  
आज आदमी पैसे के ढेर पर खड़ा है
पर आदमी है धनवान या पैसा उससे बड़ा है? 

पुरानी डायरी के पन्ने

बेरोजगार मन-२
'मेरे हिस्से का काम'

हर सुबह ढूँढता हूँ उसे
अख़बारों के इश्तहारों में
दीवारों पर चिपका ना हो कहीं
इसलिए आते जाते
देखते रहता हूँ दीवारों पे
रास्ते के खम्बों को भी नहीं छोड़ता हूँ
बैठ ना गया हो कहीं
चढ़कर ऊपर इसीलिए
एक नज़र उन पर भी फेरता हूँ

गर छुपा हो कहीं पानी में
निकल आये बाहर वह
यही उम्मीद लिए
पानी में एक-एक पत्थर फेंकता हूँ
ताल का शांत जल, तरंगें खाता है
पर वह निरा बाहर न आता है

पता नहीं कैसा है वह
गोरा है या काला
ढूंढते हुए उसको
 हस्तरेखाओं तक को खंगाला
वो वहां से भी फरार हो गया
हाथ में डिग्रियां लेकर ढूँढना उसे
बेकार हो गया

कहीं सुना
मिलता है वह दफ्तरों में
दफ्तरों की तरफ दौड़ा
मंदिरों को भी ना छोड़ा
बता ना पाए शिवजी
बता ना पाए राम
आखिर कहाँ खो गया है
मेरे हिस्से का काम

पुरानी डायरी के पन्ने

'बेरोजगार मन'
(वर्ष २००५ में लिखी कविता)


यह इंतज़ार कब ख़त्म होगा?
उस वक्त तो नहीं
जब भूल जाऊंगा कि किसका इंतज़ार कर रहा था
या उस वक्त
जब खबर ना रहेगी कि क्या कर रहा था?

हर इंतज़ार ख़त्म हो जाता है
कहीं ना कहीं जा कर
पर ये इंतज़ार कहता है मुस्कुराकर
थको नहीं जनाब
रुको नहीं जनाब
बस करते रहो यूँ ही
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार                     

सुबह से शुरू इंतज़ार
दिन भर रहता है तैयार 
दिन ढलने तक 
रहता है ऐतबार

फिर ना जाने कब
धीरे-धीरे दस्तक दे देती है रात
रिमझिम-रिमझिम सी बरसात
भागता है वक्त
इंतज़ार के साथ

रात भी इंतज़ार में
कब बीत जाती है
समझ नहीं पाता हूँ 
तकिये पर सिर रख 
सुबह का इंतज़ार करते हुए 
सपनों में खो जाता हूँ

इस इंतज़ार से यह उम्मीद जगती है
कि रात को देखे हुए सपने 
अगली सुबह पूरे होंगे

पर, सुबह...
नई होती न कोई बात
हर   बीतते पल के संग 
टूटती उम्मीदें छोड़ जाती हैं पास
बस, इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

मीलों तक पसरा हुआ
सरसों सा बिखरा हुआ
मन जिसे समेट नहीं पाता है
नौकरी का यह अंतहीन इंतज़ार
हर पल बेरोजगार होने का एहसास दिला जाता है...  
 
                                               

हम लोग

चुनाव के बाद दोस्त ने कहा 'हम लोग'
पता चला तुम्हें क्या चीज़ हैं हम लोग?
हम लोग ही तो हैं जो पहले को गिराकर
दूसरे को उठाते हैं
तुम्हारा क्या ख्याल है इस बारे में
अरे भाई हम लोग ही तो हैं
जो इन नेताओं को इनकी औकात बताते हैं
देखो किस तरह हम लोग शेर को भीगी बिल्ली बनाते हैं
हमने कहा तो क्या हुआ?
कल वे दहाड़ रहे थे
आज ये कर रहे हैं भोग
कल भी कठपुतलियां थे
और आज भी कठपुतलियाँ हैं हम लोग
अब ये जैसा चाहेंगे हमें नचायेंगे
 लालच का टुकड़ा फेंककर
हम लोगों को लड़ायेंगे
और जब हम लोग आपस में लड़ के मर जायेंगे
तब हमारी अधजली चिता पर ये लोग
अपनी राजनीति की रोटियां पकाएंगे
ये लोग हमारी चिता को अलाव बनाकर
अपनी हथेलियाँ गर्म करते रहेंगे
जब कोई हमारे बारे में पूछेगा
तब हमारी मौतों को दुखद घटना कहकर
ये लोग शर्म भी करते रहेंगे
पता नहीं...
किस बात की शर्म होगी वह
नफरत की चिंगारी भड़काने की शर्म?
दंगे करा कर हमें आपस में लड़ने की शर्म?
या फिर...
इसके बावजूद हमारे बच जाने की शर्म
जो भी हो
मानना पड़ेगा...
इन्हें शर्म तो आती है
और वहीँ दूसरी ओर हम लोग हैं
जो पिछली चोट को भुलाकर
अगली राष्ट्रीय शर्म का इंतजार करते हैं
शर्म के इन्ही ठेकेदारों की जयजयकार करते हैं
इससे बड़ी क्या शर्म होगी
कि हम लोगों को कभी शर्म ही नहीं आती है
इसीलिए सबकुछ जानने के बावजूद
यह जानकार पब्लिक ही मारी  जाती है!

दो राही, एक सफर...

दो राही, एक सफर...
दोनों को याद है
कहाँ उनकी पहली मुलाकात हुई थी
नाम पूछने से शुरू उनकी बात हुई थी
पिछले कई सालों से उनका साथ है
फ़िर नाम भूल जायें एक दूजे का
क्या ऐसी भी कोई बात है?
भूले नहीं हैं
भूलना चाहते भी नहीं
ना दोस्ती है उनमें
ना दुश्मनी ही सही
फ़िर आख़िर क्या बात हो गई
एक अनमने रिश्ते की
कैसे शुरुआत हो गई?
दोनों ही अच्छे खासे हैं
बाल बच्चे वाले हैं
हां भाई कह रहा हूँ ना
दोनों एक ही दफ्तर में काम करनेवाले हैं
ऐसा भी नहीं है की
दूसरा वाला पहले से ज़्यादा कमाता है
पहले वाला भी दूसरे जितना ही पाता है
फ़िर दोनों एक दूजे से भय क्यों खाते हैं?
वक्त बेवक्त एक दूसरे को नीचा दिखाते हैं
रास्ता उनका किंचित एक है
फ़िर भी दोनों अकेले अकेले चले जा रहे हैं
रास्ते की भयावहता से जितना ना डरे
उससे कहीं ज़्यादा
दोनों एक दूसरे से डरते रहे
गिरते रहे, पड़ते रहे
चुपचाप दोनों चलते रहे
सुन न पाये थकावट की सरसराहट दूजा
इस कदर हर मकाम पर साँस भरते गए, भरते गए
बेवजह दोनों
एक दूसरे से डरते गए, डरते गए
...और रास्ता बीत गया
पता है... दोनों को मंजिल नहीं मिली

बड़े शहर के एक छोटे से कोने से...

बड़े शहर के एक छोटे से कोने से..."उसने कहा, मुंबई भारत का सबसे बड़ा शहर है, यहाँ सारी सुख सुविधाएँ हैं, है ना!"
"यह तो मैं भी जानताहूँ।""
पर एक बात तुम्हें गौर की?"
"क्या"
"मुंबई में पागलों की संख्या बहुत ज़्यादा है! ऐसा क्यों है भला?"
"...क्योंकि लोग यहाँ सपने लेकर आते हैं," मैंने कहा।
"अरे यार यह कोई बात है? इसका मतलब मुझे समझ में नहीं आया। क्या लोग सपनों को हकीक़त बनने के लिए भाग दौड़ करते करते पागल हो जाते हैं?"
"नहीं सपनों के टूटने पर लोग पागल हो जाते हैं," मैंने कहा।
फ़िर उसने कुछ नहीं पूछा


(यह उस आदमी के लिए लिख रहा हूँ, जिसे पहली बार तब देखा था जब मैं १०-१२ साल का था. उसका व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक था। करीब बारह तेरह साल बाद वह आदमी एक बार फिर दिखा, उसके चेहरे का वह आकर्षण पता नही कहाँ खो गया था. वो मानसिक रूप से परेशां लग रहा था. कल ही एक दोस्त से यूँ ही उस आदमी के बारे में ज़िक्र छेडातो पता चला, की वो बहुत ही प्रतिभाशाली था. पर कई असफलताओं से बहुत हताश हो गया. आजकल उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं रहती है.)
उस आदमी के बारे में जो भी समझा लिख दिया...
भगवान से दुआ है की वह पहले जैसा हो जाए और अपने अधूरे सपनों को हकीकत बनाये...

चौड़ी हो रही सड़क पर चलते चलते

जिस जोश के साथ शुरुआत की थी, शायद वह थोड़ा ठंडा पड़ गया था। पर मैंने आज एक बार फिर अपने से वादा किया कि अब रोजाना कुछ ना कुछ ज़रूर लिखूंगा। तो आज लिखने कि शुरुआत करता हूँ चौड़ी हो रही एक सड़क के मुवायने के साथ।

सड़क चौड़ी हो रही है। मैं कई दिनों से इस सड़क पर आ जा रहा हूँ। पर कभी ध्यान नहीं दिया। चौड़ी हो रही इस सड़क के किनारे किनारे धूल खाता हुआ मैं रोज़ चलता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं अकेला हूँ, रोज़ हजारों लोग इसी तरह धूल खाते हैं। कुछ खांसते, कुछ कोसते और कुछ लोग सबकुछ ज़ज्ब कर आगे बढ़ जाते हैं। सुबह दी हुए गाली दोपहर को भूल जाते हैं। हालाँकि शाम को इसी सड़क पर वही शब्द एक बार फ़िर दोहराते हैं। हाँ, घर पहुंचते पहुंचते सब कुछ भुला देते हैं, अगली सुबह तक के लिए।
अब क्या सोच रहा है यार? यही तो ज़िन्दगी है! मेरी, तेरी और उसकी भी जिसे हम पसंद नहीं करते। यह तो मानी बात है कि वह भी हमे पसंद नहीं करता होगा। लेकिन एक बात कहूं, दिल से कहता हूँ, सोलह आने सच न हो तो कहना। यह मैं भी जानता हूँ, तुम भी जानते हो वह बुरा आदमी नहीं है। वह भी बिल्कुल हमारी ही तरह है। फिर भी कभी-कभी अलग लगता है। हाँ, हम बात कर रहे थे चौड़ी हो रही इस सड़क की, तो इसपर जितना हम दौड़ते हैं, उतना ही वह भी हांफता है। हमारी तेज़ होती रफ्तार के साथ वो भी भागता है।
पाँच दिन पहले १५ अगस्त था। यानी आज़ादी का दिन। हर साल इस दिन हर कोई अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक लच्छेदार बातें करता है। वैसे इस साल इन बातों में मिठास थोड़ी कम थी सिर्फ़ इसलिए नहीं कि चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं, पूरा देश स्वाइन फ्लू और सूखे से घबराया हुआ है। बात करें १५ अगस्त की तो लोगों का देश प्रेम १९ अगस्त तक दिख रह है। तुम भी चौड़ी हो रही इस सड़क पर तिरंगे को तड़पता देखा रहे हो न! अच्छा सच बताना क्या तुम्हें यह बताने की ज़रूरत है। तुम भी तो जब से चड्ढी सम्हालना सीखे हो, १५ अगस्त, २६ जनवरी के बाद सड़क पर गिरे (फेंके ) तिरंगे उठाते आ रहे हो।
इस साल बरसात नहीं हुई, खाने की चीजों का क्या होगा? पता है स्वआइन फ्लू फैला है पर बसों और ट्रेन में खांसने और छींकने पर लोग हमें इस तरह अजीबोगरीब नज़रों से देखते हैं, जैसे इसे हम उन्हें बीमार करने आए हैं. ऐसी कई सारी बातें हैं जिनकी चिंता क्या सचमुच हमें तुम्हें करनी चाहिए या बगल में चल रहे चाचाजी की तरह सामने से आ रही लड़की की ड्रेस के पैटर्न की तारीफ करनी चाहिए। जो भी हो इस चाचाजी की बेटी की उम्र भी कुछ इतनी ही होगी। खैर छोड़ो यह चाचाजी की निजी ज़िन्दगी का मामला है।
इस सड़क पर और आगे बढ़ता जाता हूँ तो कुछ दिन पहले की तरह ही रिक्शेवाले को कारवाले से मार खाते देखता हूँ। अपनी ही दुनिया में खोये लोग कुछ पल के लिए ठहर जाते हैं, फ़िर आगे बढ़ जाते हैं. पर यह कहना नहीं भूलते, "साले रिक्शेवालों का यह तो रोज़ का नाटक है।"
उफ़ अब दम सा घुट रहा है चलते चलते। यह सड़क चौड़ी तो हो रही है पर पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि और भी संकरी होती जा रही है, बिल्कुल उसी मध्यमवर्गी नौकरीपेशा की तरह जिसका इन्क्रीमेंट तो हर साल हो रहा है पर क़र्ज़ का बोझ और भी चढ़ता जा रहा है सिर पर। अब इस सड़क पर और नहीं चला जा रहा है। अरे यह क्या? तुम भी तो परेशां परेशां से दिख रहे हो। तो छोड़ो न इस चौड़ी हो रही सड़क पर चलने का मोह। आओ उस गली से चलते हैं जो आज भी पहले जैसी ही है। मुझे पता है तुम्हें भी यह सवाल परेशां कर रहा है की आख़िर यह सड़क चौड़ी किसके लिए हो रही है?


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पहला कदम

और आखिरकार मैंने भी लिखना (ब्लॉग ) शुरू कर दिया...
मैं ब्लॉग की दुनिया से वाकिफ तो था पर ख़ुद का ब्लॉग लिखने की प्रेरणा दी मेरे एक प्यारे से सहकर्मी कम दोस्त (अधिक ) धीरेन्द्र कुमार ने। धीरेन्द्र दिल्ली के निफ्ट (नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फैशन टेक्नोलॉजी ) से हमारे यहाँ बतौर इन्टर्न आया था यानी हमसे मैगजीन की कार्यप्रणाली के बारे में सीखने आया था। डेढ़ महीने तक हमने जो कुछ सिखाया उसे बखूबी सीखने के साथ-साथ उसने हमें (मुझे और शिल्पाजी-फेमिना हिन्दी में मेरी वरिष्ठ सहयोगी ) ब्लॉग की दुनिया से जोड़ दिया।
अपने पहले पोस्ट "पहला कदम " के ज़रिए मैं धीरेन्द्र को इस बेहतरीन माध्यम के उपयोग करने की प्रेरणा देने के लिए धन्यवाद देने के साथ ही अपने ब्लॉग हक बनता है के बारे में भी बताना चाहता हूँ।
कभी-कभी लगता है की हम बस ज़िन्दगी को जिए जा रहे हैं। जो आज किया कल भी वही करना है, थक जाने पर भी कुछ और कदम चलना है। पर समझ नहीं आता कि हम जो भी हैं, जैसे भी हैं वो क्यों हैं? हम जो कुछ कर रहे हैं किसके लिए कर रहे हैं?
मेरा मानना है कि हम किसी भी मुद्दे पर जो सोचते हैं, जो भी समझते हैं या नहीं समझ पाते हैं उसे वैसे का वैसे बताना सबका हक है। पर कई बार हम जो महसूस करते हैं वो नहीं कह पाते यानी स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दे पाते। अपने ब्लॉग हक बनता है के ज़रिए मैं वो सभी बातें करना चाहता हूँ जो मुझे परेशान करती हैं, जो मेरे माध्यम से बाहर आना चाहती हैं।
आखिरकार उन बातों को मुझे परेशान करने और मुझे उन्हें आप से बांटने का हक बनता है...