जिस जोश के साथ शुरुआत की थी, शायद वह थोड़ा ठंडा पड़ गया था। पर मैंने आज एक बार फिर अपने से वादा किया कि अब रोजाना कुछ ना कुछ ज़रूर लिखूंगा। तो आज लिखने कि शुरुआत करता हूँ चौड़ी हो रही एक सड़क के मुवायने के साथ।
सड़क चौड़ी हो रही है। मैं कई दिनों से इस सड़क पर आ जा रहा हूँ। पर कभी ध्यान नहीं दिया। चौड़ी हो रही इस सड़क के किनारे किनारे धूल खाता हुआ मैं रोज़ चलता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं अकेला हूँ, रोज़ हजारों लोग इसी तरह धूल खाते हैं। कुछ खांसते, कुछ कोसते और कुछ लोग सबकुछ ज़ज्ब कर आगे बढ़ जाते हैं। सुबह दी हुए गाली दोपहर को भूल जाते हैं। हालाँकि शाम को इसी सड़क पर वही शब्द एक बार फ़िर दोहराते हैं। हाँ, घर पहुंचते पहुंचते सब कुछ भुला देते हैं, अगली सुबह तक के लिए।
अब क्या सोच रहा है यार? यही तो ज़िन्दगी है! मेरी, तेरी और उसकी भी जिसे हम पसंद नहीं करते। यह तो मानी बात है कि वह भी हमे पसंद नहीं करता होगा। लेकिन एक बात कहूं, दिल से कहता हूँ, सोलह आने सच न हो तो कहना। यह मैं भी जानता हूँ, तुम भी जानते हो वह बुरा आदमी नहीं है। वह भी बिल्कुल हमारी ही तरह है। फिर भी कभी-कभी अलग लगता है। हाँ, हम बात कर रहे थे चौड़ी हो रही इस सड़क की, तो इसपर जितना हम दौड़ते हैं, उतना ही वह भी हांफता है। हमारी तेज़ होती रफ्तार के साथ वो भी भागता है।
पाँच दिन पहले १५ अगस्त था। यानी आज़ादी का दिन। हर साल इस दिन हर कोई अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक लच्छेदार बातें करता है। वैसे इस साल इन बातों में मिठास थोड़ी कम थी सिर्फ़ इसलिए नहीं कि चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं, पूरा देश स्वाइन फ्लू और सूखे से घबराया हुआ है। बात करें १५ अगस्त की तो लोगों का देश प्रेम १९ अगस्त तक दिख रह है। तुम भी चौड़ी हो रही इस सड़क पर तिरंगे को तड़पता देखा रहे हो न! अच्छा सच बताना क्या तुम्हें यह बताने की ज़रूरत है। तुम भी तो जब से चड्ढी सम्हालना सीखे हो, १५ अगस्त, २६ जनवरी के बाद सड़क पर गिरे (फेंके ) तिरंगे उठाते आ रहे हो।
इस साल बरसात नहीं हुई, खाने की चीजों का क्या होगा? पता है स्वआइन फ्लू फैला है पर बसों और ट्रेन में खांसने और छींकने पर लोग हमें इस तरह अजीबोगरीब नज़रों से देखते हैं, जैसे इसे हम उन्हें बीमार करने आए हैं. ऐसी कई सारी बातें हैं जिनकी चिंता क्या सचमुच हमें तुम्हें करनी चाहिए या बगल में चल रहे चाचाजी की तरह सामने से आ रही लड़की की ड्रेस के पैटर्न की तारीफ करनी चाहिए। जो भी हो इस चाचाजी की बेटी की उम्र भी कुछ इतनी ही होगी। खैर छोड़ो यह चाचाजी की निजी ज़िन्दगी का मामला है।
इस सड़क पर और आगे बढ़ता जाता हूँ तो कुछ दिन पहले की तरह ही रिक्शेवाले को कारवाले से मार खाते देखता हूँ। अपनी ही दुनिया में खोये लोग कुछ पल के लिए ठहर जाते हैं, फ़िर आगे बढ़ जाते हैं. पर यह कहना नहीं भूलते, "साले रिक्शेवालों का यह तो रोज़ का नाटक है।"
उफ़ अब दम सा घुट रहा है चलते चलते। यह सड़क चौड़ी तो हो रही है पर पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि और भी संकरी होती जा रही है, बिल्कुल उसी मध्यमवर्गी नौकरीपेशा की तरह जिसका इन्क्रीमेंट तो हर साल हो रहा है पर क़र्ज़ का बोझ और भी चढ़ता जा रहा है सिर पर। अब इस सड़क पर और नहीं चला जा रहा है। अरे यह क्या? तुम भी तो परेशां परेशां से दिख रहे हो। तो छोड़ो न इस चौड़ी हो रही सड़क पर चलने का मोह। आओ उस गली से चलते हैं जो आज भी पहले जैसी ही है। मुझे पता है तुम्हें भी यह सवाल परेशां कर रहा है की आख़िर यह सड़क चौड़ी किसके लिए हो रही है?
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